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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 64 
ययाति के हस्तिनापुर का सम्राट बनने के पश्चात हस्तिनापुर में हर्षोल्लास का वातावरण छा गया । ययाति ने अपने पराक्रम का परिचय तो प्रदर्शन शाला में दे दिया था किन्तु "धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों" में निपुणता का परिचय देना अभी बाकी था । अर्थ , राजनीति , विदेश नीति और न्याय पद्धति में उसके ज्ञान की सीमा देखना अभी बाकी था । उसने एक एक विषय में अपने मंत्रियों , अधिकारियों और विषय के पंडितों से सलाह लेकर आवश्यक सुधार प्रारंभ कर दिये । 

एक दिन सम्राट ययाति राज दरबार में बैठे हुए थे और राजकार्य का संचालन कर रहे थे । अचानक बाहर से कोलाहल की ध्वनि सुनाई देने लगी । किसी स्त्री और कुछ पुरुषों के जोर जोर से बोलने की आवाजें आ रही थीं । ऐसा लग रहा था जैसे कुछ लोग द्वारपालों से उलझ रहे हों । ययाति ने अमात्य को इशारा कर उन लोगों को राजसभा में आमंत्रित करने को कहा । तब वे सब लोग राजसभा में आकर एक कोने में खड़े हो गये । 

ययाति ने पूछा "क्या बात है ? आप लोग कौन हैं और क्यों झगड़ रहे हैं ? 
अधेड़ उम्र की स्त्री बोली "महाराज, मेरा नाम अचला है । मैं आचार्य रघु की पुत्री और पंडित दीन दयाल की पत्नी हूं । ये सभी 12 लोग मेरे पुत्र हैं । मैं पहले इन सबका परिचय करवाती हूं महाराज । 
ये मेरा प्रथम पुत्र है । इसका नाम प्रथम ही है । यह मेरा "कानीन" पुत्र है । मेरे पिता एक गुरुकुल चलाते थे जिसमें अनेक छात्र पढने आते थे । तब मैं अविवाहित थी और अल्हड़ थी । मैं युवा अवस्था में प्रवेश कर रही थी । उस समय पिता श्री के गुरुकुल में अध्ययनरत एक छात्र विशाल से मुझे प्रेम हो गया । हम लोग चोरी चोरी मिलने लगे । एक शरद पूर्णिमा की रात को हम दोनों ने समस्त दूरियां मिटा दीं और हम एकाकार हो गए । उसका परिणाम यह हुआ कि "प्रथम" मेरे गर्भ में आ गया । जब पिता श्री को मेरे बढे हुए पेट से ज्ञात हुआ कि मैं गर्भवती हूं और इसका उत्तरदायी विशाल है तो उन्होंने विशाल को बहुत बुरा भला कहा । विशाल शर्म के मारे आश्रम छोड़कर चला गया और उसका पता आज तक नहीं चला कि वह कहां चला गया है ? उसके पश्चात प्रथम ने जन्म लिया । पिता श्री ने मुझे इस कृत्य के लिए बहुत अपशब्द कहे थे । 

विशाल के गुरुकुल से जाने के पश्चात मुझे विशाल की बहुत याद आने लगी । मुझे रातों में नींद नहीं आती थी । इसी बीच मुझे एक अन्य छात्र रत्नेश से प्रेम हो गया और उससे भी मुझे गर्भ रह गया । इसी अवधि में मेरे पिता ने मेरा विवाह पंडित दीन दयाल से कर दिया । विवाह के समय मेरे गर्भ में मेरा द्वितीय पुत्र "शिव" था जो उस समय तीन महीने का था । मैंने यह बात सब से छुपा कर रखी थी । जब मेरे पेट के बढते आकार ने मेरे पति का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया तो मुझे उन्हें सब कुछ सच सच बताना पड़ा । मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि अब मेरा मेरे पूर्व प्रेमियों से कोई संबंध नहीं रहा हैं तब जाकर मेरे पति ने इस द्वितीय पुत्र शिव को स्वीकार कर लिया । शास्त्रों में यह पुत्र "सहोढ़" कहलाता है । 
विवाह के उपरांत पता नहीं मुझे किसका श्राप लगा जो मेरे कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई । संतान उत्पन्न न होने से मेरे पति और मैंने मेरे ज्येष्ठ के पुत्र राम विलास को गोद ले लिया । इस प्रकार राम विलास मेरा "दत्तक" पुत्र बन गया । यह मेरा तृतीय पुत्र है । दत्तक पुत्र गोद लेने से मेरे पति को संतुष्टि नहीं मिली तो उन्होंने मुझे मेरे देवर श्री दयाल के साथ "नियोग" करने का सुझाव दिया । देवर के साथ नियोग करके मुझे एक पुत्र की प्राप्ति हुई जो कि "नियोग पुत्र" कहलाता है और जिसका नाम निर्मल है और जिसे मेरा चतुर्थ पुत्र होने का सौभाग्य प्राप्त है । 

ईश्वर की लीला देखिए महाराज कि इसके पश्चात मेरे पति के संसर्ग से मुझे गर्भ ठहर गया और मेरे "औरस" पुत्र जयदेव का जन्म हुआ । इसके पश्चात एक दिन मैं और मेरे पति दीन दयाल कहीं जा रहे थे तो रास्ते में एक व्यक्ति अपना पुत्र बेच रहा था । हमें उस बच्चे पर दया आ गई । पता नहीं उस बच्चे को कौन खरीद ले ? उसकी जिन्दगी बर्बाद हो सकती थी इसलिए हमने वह बच्चा खरीद लिया और इस प्रकार यह अविनाश मेरा छठा "क्रीत" पुत्र बना । 

कुछ समय पश्चात मेरे पति विद्याध्ययन करने के लिये "तक्षशिला" चले गये । वहां वे विद्याध्ययन करने के साथ अध्यापन का कार्य भी करते थे । वहां पर उनकी सेवा उनका एक शिष्य "नारायण" करने लगा । नारायण मेरे पति को अपना पिता मानकर सेवा करता था तो मेरे पति ने भी इसे अपना पुत्र मान लिया । इस प्रकार नारायण शास्त्रों में "कृत्रिम" पुत्र कहलाता है । वहां उन्होंने मेरे वियोग में एक शूद्र स्त्री से विवाह भी कर लिया जिससे एक "शौद्ध" पुत्र की प्राप्ति  हुई जिसका नामकरण शुद्धोधन रखा गया था । 

पति के परदेश जाने के कारण मैं भी "रति सुख" से वंचित हो गई । आप ही बताइए महाराज कि उनके वियोग में मैं कब तक अपनी कामाग्नि को रोकती ? मेरे देवर मेरे साथ ही रहते थे और उनके साथ नियोग करने से मुझे एक पुत्र भी हो गया था । इसलिए हम दोनों एक दूसरे के नजदीक आ गये और मेरे गर्भ में मेरे देवर से एक और पुत्र आ गया जिसे "गूढोत्पन" पुत्र कहा जाता है और जिसका नाम "प्रच्छन्न" रखा गया है । यह मेरा नौवां पुत्र कहलाता है । 

ईश्वर की लीला अपरंपार है महाराज ! क्षय रोग से एक दिन मेरे देवर की मृत्यु हो गई । देवर की मृत्यु हो जाने से मेरी वासना की तृप्ति होना बंद हो गई । इसलिए मैंने अपने नौकर "सेवक राम" से शारीरिक संबंध बना लिये जिससे मुझे दसवां पुत्र "गरीब दास" मिला । शास्त्रों में ऐसे पुत्र को "पौनर्भव" कहते हैं । जब मेरे पति विद्याध्ययन करके वापिस आये तब उन्हें मेरे प्रच्छन्न और गरीब दास दोनों पुत्रों के बारे में पता चला तो उन्होंने हमारे नौकर को घर से निकाल दिया । 
इस तरह हम लोग बड़े आराम से अपना जीवन यापन कर रहे थे । एक दिन एक दंपत्ति हमारे पास आये और कहने लगे कि वे अपने पुत्र का भरण पोषण करने में असमर्थ हैं इसलिए वे अपने पुत्र का त्याग करना चाहते हैं । हमने दया करते हुए उस पुत्र का भरण पोषण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया । इस प्रकार यह पुत्र रजनीश मेरा ग्यारहवां पुत्र बना जो "अपविद्ध" पुत्र कहलाता है । और अंत में यह बारहवां पुत्र "अनाथ" है जिसके माता पिता की मृत्यु एक दुर्घटना में हो गई थी । जिसका हमने भरण पोषण किया और यह पुत्र "स्वयंदत्त" कहलाता है । इस प्रकार मेरे ये बारह पुत्र हैं महाराज ! अब मेरे पति दीनदयाल का देहांत हो गया है इसलिए उनकी संपत्ति के विभाजन के लिए ये आपस में झगड़ रहे हैं । हम आपसे न्याय मांगने आये हैं महाराज । आप हमारा न्याय कीजिये और मेरे पति की संपत्ति का नियमानुसार विभाजन कर दीजिए" । अचला ने पूरी कहानी विस्तार से बता दी । 

अमात्य सारी बातें सुनकर कुछ कहने को खड़े हुए ही थे कि सम्राट ययाति ने उन्हें रोक दिया और कहा 
"आप इस प्रकरण में शांत ही रहें और मुझे निर्णय करने का अवसर दें । मेरा भी परीक्षण हो जायेगा कि मुझे शास्त्रों का कितना ज्ञान है" ? 

इसके पश्चात ययाति कहने लगे "आपकी समस्या थोड़ी विचित्र है पर मनु महाराज ने इस विषय पर अपनी पुस्तक "मनुस्मृति" में विस्तार से लिखा है । आपके अविवाहित रहते जो "कानीन" पुत्र प्रथम पैदा हुआ उसका आपके पति दीनदयाल से कोई संबंध नहीं है इसलिए आपके पति की संपत्ति में उसका कोई अधिकार नहीं है । 

आपका और आपके पति का औरस पुत्र, दत्तक पुत्र और कृत्रिम पुत्र तीनों ही आपके पति की संपत्ति के अधिकारी हैं । अपविद्ध पुत्र भी आपके पति के वैध उत्तराधिकारी हैं । 

अब बात आती है नियोग से उत्पन्न और पति की अनुपस्थिति में देवर से संसर्ग से उत्पन्न पुत्र "गूढोत्पन पुत्र" की तो इस बारे में मनु महाराज ने कहा है कि पति पत्नी का संबंध पृथ्वी और बीज का है । पत्नी पति का "क्षेत्र" कहलाती है और पत्नी से उत्पन्न पुत्र जो पति के अतिरिक्त पति के किसी संबंधी के "बीज" से उत्पन्न हुए हों, क्षेत्रज कहलाते हैं । इस प्रकार नियोग से उत्पन्न पुत्र प्रच्छन्न और देवर से उत्पन्न पुत्र जो कि गूढोत्पन पुत्र कहलाता है, भी आपके पति के वैध वारिस माने जायेंगे । 

रही बात क्रीत पुत्र, पौनर्भव पुत्र, स्वयंदत्त, शौद्ध पुत्र और सहोढ पुत्र की तो ये पुत्र वैध वारिस नहीं माने जायेंगे क्योंकि क्रीत पुत्र की स्थिति एक दास जैसी है । पौनर्भव पुत्र व्यभिचार से उत्पन्न पुत्र है जो स्वीकार्य नहीं है । गर्भ सहित विवाह करना शास्त्रों के अनुसार निषिद्ध है इसलिए सहोढ पुत्र भी संपत्ति में हिस्सा पाने का अधिकारी नहीं है । स्वयंदत्त पुत्र का भी आपके पति की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं होगा । एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह वर्जित है इसलिए शौद्ध पुत्र भी वैध उत्तराधिकारी नहीं है" । 

अमात्य, राजपुरोहित और अन्य समस्त दरबारियों ने महाराज ययाति के शास्त्र सम्मत न्याय की भूरि भूरि प्रशंसा की । इसके पश्चात अचला अपने समस्त पुत्रों को साथ लेकर राजसभा से चली गई । 

श्री हरि 
29.7.2023 


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1 Comments

Mohammed urooj khan

25-Oct-2023 02:30 PM

👍👍👍👍

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